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राख से तालीम लेकर

राख  से  तालीम लेकर राख  से  तालीम लेकर आग बनने चल पड़े , वो देख कर इंसान को इंसान से ही लड़ पड़े , धर्म जाति की चक्की में इंसानियत पिस्ती रही , कुछ मासूम आँखों से मासूमियत रिस्ति रही , शेर कुत्ते बन गए थे भीड़ की उस आड़ में , सारी प्यासे  गई थी ख़ून की उस बाढ़ में , नंगी हुई तलवार से नंगी कर दी थी बेटियाँ , माँस के उन लोथड़ों से भरदी ख़ाली पेटियां , आग उतारी चूल्हों से और घर के घर जला दिए , इंसान की तलाश में इंसान ही जला दिए | गोलियों के शोर में लोरियाँ घबरा गई , मौत की गोद में बच्चों को नींद आ गई , माँ के उस आँचल को भी रंग दिए वो लाल में , ऐसे दरिन्दो की भीड़ थी इंसानियत की खाल में , ना पूछे मेरे धर्म को ना पूछे मेरी जात को , बस एक ही अलगार थी की सर को मेरे काट दो , मेरे ही बहते ख़ून से मेरी ही मिट्टी लाल थी , मेरे ही पाप की चीखों से मेरी ही माँ बेहाल थीं , हाथ में तलवार लेकर में भी उनमे था खड़ा , मेरी ही माँ का सिर कटा और मेरे ही पैरों में आ गिरा , चीथड़े कितने हुए मै हाथ पर गिनता रहा , मेरे ही घर की अस्थियाँ मै भीड़ से बिन्ता रहा | राख  से...